हमारे युग में कविता में विचार को ज़रूरी समझा जाता है, मगर जो बात याद रखने की है उसे भुला दिया जाता है और वह यह है कि कविता, विज्ञान, इतिहास, अर्थशास्त्र, मनोविज्ञान या दर्शन से नहीं बनती, कविता स्कूल की टीचर या कॉलेज का अध्यापक नहीं होती-वह पाठकों या श्रोताओं को स्टूडेंट्स की तरह कुछ सिखाती नहीं...वह तो केवल उस विस्मय को दर्शाती है जो बच्चों की आँखों में नज़र आता है, उस आनंद को जगाती है जो मुस्कुराते फूलों को देखकर मन में जगमगाता है, मानव के अंदर छिपी उस इंसानियत को गुदगदाती है जो संसार को जीने के योग्य बनाती है...दूसरे शब्दों में यूँ कहा जा सकता है कि कविता देखे हुए को नहीं दिखाती, देखे हुए में जो अनदेखा होता है उसे दर्शाती है.
आधुनिक युग में, छंद से दूरी, शब्दों की लयकारी को न पहचानने की मजबूरी, और दूसरों को सिखाने या समझाने की मजदूरी ने कविता को पूरी से अधूरी बना दिया है. आधुनिक कविता विशेषकर छंदमुक्त, को पढ़ने या सुनने के बाद, कविता का केवल भाव जेहन में रहता है, उसकी पंक्तियाँ याद नहीं रहतीं...12वीं सदी के बाबा फ़रीद का दोहा अब तक लोगों की ज़बान पर है
कागा सब तन खाइयो, चुन-चुन खइयो मांस
दो नैना मत खाइयो, पिया मिलन की आस
बीसवीं शताब्दी के रघुपति सहाय फ़िराक का शेर जिस पर आचार्य रजनीश का एक पूरा डिसकोर्स है वह यूँ है
मुद्दतें गुजरीं तेरी याद भी आई न हमें
और हम भूल गए हों, तुझे ऐसा भी नहीं
इन शेरो और दोहों के याद करने के पीछे वही चमत्कार काम कर रहा होता है जो एक पंक्ति में यूँ कहा जा सकता है...‘बात जो दिल से निकलती है असर रखती है’
Nida Faazli, Noted poet, in an article.
http://www.bbc.co.uk/hindi/entertainment/story/2007/08/070826_vv_nida_column.shtml
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